Tuesday, February 16, 2010

गणित

मम्मी तुम्हारी मैथ्स अच्छी नहीं।
जब वक़्त के झोले से लम्हे निकाले थे,
और हिसाब लगाया था की इतने पापा के,
इतने भाई के
और इतने मेरे;
तब एक हिस्सा और करना तुम भूल गई।
तब क्या सोचा था?
की हमारे हिस्सों में से
लम्हा-लम्हा
चुरा के रख लोगी अपने लिए?

क्या कहा?
निकाला था अपना भी हिस्सा?
तब तो वो ज़रूर बहुत छोटा रहा होगा.
क्योंकि आधे लाइफ्ब्वौय की तरह,
वो तो कबका ख़त्म हो गया।
जब की हमारा हिस्सा तो आज तक बाकी है।
रोज़ जब ऑफिस में टिफिन खोलता हूँ,
तो ढक्कन को सराबोर पाता हूँ।
उसी वक़्त के रेशों से,
जो रोज़ भर देती हो टिफिन में।

जब अक्सर घर लेट पहुँचता हूँ
और घर में सब सो रहे होते हैं,
डाइनिंग-टेबल पर दो थालियाँ रखी होती हैं।
फिर जब तुम सोफे से उठ कर मेरे साथ खाने बैठती हो,
तब सोफे पर, उसी वक़्त के निशाँ देखें हैं मैंने।

संडे दोपहर
जब तुम कपड़े धो कर
रस्सी पर टांगने को मुझे देती थी;
मैंने जब भी निचोड़ा उन कपड़ों को,
तो देखा उसी वक़्त को कपड़ों में से टपक कर,
दीवार में बनी नाली की और जाते हुए।

तुमने नींद जला कर रौशनी दी है मेरी उन रातों को,
जिनमे कभी मै देर तक जागा करता था।
ना जाने ऐसी कितनी रातों में,
वही वक़्त ओढ़ के सोया हूँ।

मम्मी, मिलें कभी मैथ्स के टीचर तुम्हारे,
तो पूछुंगा उनसे की आखिर गणित कैसा था तुम्हारा?

क्योंकि आज जब मै खुद को देखता हूँ,
तो मेरी सारी कामयाबियों पर, खुशियों पर,
पूरी ज़िन्दगी पर उसी मैथ्स के निशान नज़र आते हैं।
हमारा घर नज़र आता है,
घर के और लोग मेरे साथ खड़े नज़र आते हैं.
पर तुम नज़र आती हो,
अलग.
हम सबों की और देखती हुई,
और मुस्कुराती हुई.
तब मै ये तय नहीं कर पता -
की तुम्हारी मैथ्स खराब है,
या अच्छी?