Saturday, July 25, 2009

वक्त के सफर में

इस शहर में मैं अक्सर वक्त से टकरा जाता हूँ। यूँ तो दिन भर चलते चलते कभी वक्त का एह्सास नहीं होता। कभी कभी जब नई-पुरानी इमारतों के जंगल के बीच साँस लेते कुछ खंडहरों से मुलाक़ात होती है तब वक्त सामने खड़ा नज़र आता है। एहसास होता है की हम पहले बाशिंदे नहीं हैं इस शहर के। हमसे पहले जाने कितनी जिन्दगियाँ, कितनी सभ्यताएँ रह चुकी हैं यहाँ , जी चुकी हैं दिल्ली को। वो सब अपने कुछ न कुछ निशाँ छोड़ गईं हैं, जिन्हें हम खंडहरों के रूप में देखते हैं। क्या हो अगर ये खंडहर किसी दिन फिर से जिंदा हो जाएँ अचानक? कुछ बोल पड़ें? क्या कहेंगे ये?

कल जब मेरी मुलाक़ात अग्रसेन की बाओली से हुई, तब मैं यही सोच रहा था। बारहखम्बा और कस्तूरबा गाँधी मार्ग - दिल्ली की दो ऐतिहासिक सड़कें, जिन्होंने पनाह दे रखी है दिल्ली के कई ऐसे निशानों को जिन्हें सिर्फ़ ये शहर और इसके लोग ही नहीं, दुनिया के कोने- कोने के लोग पहचानते हैं। British Council, American Centre, Max Mueller Bhawan, Bharatiya Vidya Bhawan, Hindustan Times मुख्यालय, Statesman House, Modern School - जाने पहचाने इन पतों की फहरिस्त काफ़ी लम्बी है। इन दोनों दिग्गज सड़कों के बीच, किसी भूले हुए अँगरेज़ अधिकारी का नाम लिए एक सोई हुई सी सड़क है, हेली रोड। ये सड़क जहाँ अपनी एक बांह फैलाती है Tolstoy Marg से मिलने के लिए वहीं से शुरू होता है एक छोटा सा सफर, जो आज से शुरू होकर आज ही पर ख़त्म होता है, बस बीच में कुछ देर कल के पास रुक जाता है।

आप भी रुक कर देखें तो वक्त के कुछ क़दमों के निशाँ यहाँ नज़र आएँगे, इस बाओली के रूप में। जहाँ तक मैं जानकारी इकट्ठी कर पाया हूँ, ऐसा कोई भी ऐतिहासिक सहारा नहीं है जो इसकी पूरी कहानी बयाँ करता हो। माना जाता है की इसे शायद द्वापर युग - महाभारत जब की कहानी है - में महाराज अग्रसेन ने बनवाया था। चौदहवीं शताब्दी में अग्रवाल समुदाय - अग्रसेन को जिसका जनक माना जाता है - ने फिर से इसे बनवाया था , या इसकी मरम्मत करवाई थी।

आधुनिक भारत के कई पड़ाव अपने कैमरे में क़ैद करने वाले फोटोग्राफर रघु राय ने जब इस बाओली को अपने कैमरे में उतारा था तब इसमें पानी भी था। पर आज ये पूरी तरह सूख चुकी है। बाक़ी हैं तो चंद सीढियां, सीढियों के इर्द-गिर्द बनी दीवारें और दीवारों में बने खोह। मै जब सीढियों से नीचे उतर रहा था तो ऐसा लग रहा था की मानो वक्त में ही उतर रहा हूँ। सीढियां आखरी माले तक जाती हैं, जहाँ से बावली की असली शुरुआत होती है। वहाँ काफ़ी कचरा और थोड़ा सा जमा हुआ पानी है , जिसकी वजह से एक बदबू सी आती है। एक माला ऊपर खड़े हो कर आप नीचे देख सकते हैं और सोच सकते हैं कि कैसी होती होगी ये जगह जब इसके तीन माले पानी के नीचे हुआ करते थे। गुम्बदनुमा इसकी छत पर चमगादडों का राज है, जैसा की हर भूली हुई इमारत में होता है।

सामने नज़र आने वाले इस पूरे ढाँचे के पीछे एक उदास सा कुँआ भी है। अगर पानी सामने वाली बावली में हुआ करता था तो फिर इस कुंए कि क्या उपयोगिता थी, समझ में नहीं आता। ख्याल सिर्फ़ इतना आता है कि बावली सामने है, तब तो बिसरी हुई है। पीछे कि तरफ़ गुमनामी कि ज़िन्दगी जी रहा ये कुँआ कैसा महसूस करता होगा।