Thursday, October 4, 2012

एक छोटा शहर, कुछ छोटी बातें

बौन्न. छोटे से देश का छोटा सा शहर. क्षेत्रफल के हिसाब से पूरा जर्मनी मध्य प्रदेश और उत्तराखंड के जोड़ से कुछ छोटा ही है. और बौन्न? दिल्ली के करीब दसवें हिस्से के बराबर. आबादी - दिल्ली का एक तिहाई. यह मानने में बहुत मुश्किल होती है की इतना छोटा शहर कभी देश की राजधानी रहा होगा. बौन्न पर ये महरबानी पश्चिम जर्मनी के पहले चान्सलर Konrad Adenauer की बदौलत हुई. जनाब इसी इलाक़े के थे.


बहरहाल, इतिहास की क्लास फिर कभी. फ़िलहाल बौन्न के character पर वापस आते हैं. शहर छोटा भी है और शांत भी. दिनभर सोया सोया सा लगता है. सिर्फ़ सुबह अपने अपने दफ्तरों की ओर भागते हुए और शाम को वापस घर की ओर निकलते हुए लोगों की वजह से दिन में दो बार इस शहर की नब्ज़ महसूस होती है. 

छोटी इमारतों का शहर है. मुझे तो सिर्फ़ एक ही ऊंची ईमारत नज़र आई. DHL का headquarter. निहायत ही बदसूरत लगता है मुझे. चिल्ला कर अपनी ओर ध्यान खींचने की कोशिश करता हुआ. घर हो या दफ्तर या दुकानें, इमारतें सभी छोटी हैं और गुडियाघर में करीने से सजाई हुई सी लगती हैं.  सभी ईमान से ट्रैफिक के नियमों का पालन करते हैं. लाल बत्ती पे गाड़ी भगाता हुआ अगर कभी कोई दिख गया तो समझ जाइएगा की प्रलय क़रीब है. सच्ची. सडकों के किनारे पार्क की हुई गाड़ियों को भी देख कर लगता है की किसी ने हाथ से उठा कर इत्मीनान से कतार में लगा दी हों.


एक नज़ारा रोज़ सडकों पर देखता हूँ, जो एक भारतीय होने की वजह से मेरे लिए बेहद रोचक है. पैदल चलने वालों के लिए अलग से लाल और हरी बत्तियां हैं.  और वो उनकी इज्ज़त भी करते हैं. पर जब किसी ऐसी जगह पर जहां सिर्फ़ जेब्रा क्रोस्सिंग हो और बत्ती ना हो, वहाँ पैदल यात्री क्या करे? इत्मीनान से सर ऊंचा उठाये और पूरे आत्मविश्वास से सड़क पार कर जाए. कोई गाड़ी टक्कर नहीं मारेगी. एकदम पक्की बात. मैं ख़ुद कई बार ऐसे हालात से गुज़रा हूँ जब आमने सामने पड़ने पर मै और गाड़ी दोनों एक साथ रुक गए. और गाड़ी चलाने वाले ने हाथ के इशारे से कुछ लखनवी अंदाज़ में मुझे कहा कि जनाब, पहले आप! कसम से, उसने गाड़ी ज़रा आगे नहीं बढाई जब तक मैंने अपने क़दम आगे नहीं बढाए. मेरे सड़क पार कर जाने के बाद ही वो गाड़ी आगे बढ़ी. कल्चर शौक का इस से बड़ा नमूना मेरे लिए नहीं है यहाँ. तौबा. पैदल चलने वालों को इतनी इज्ज़त! दिल में एक बहुत बड़ा डर घर कर गया है कि अगर मुझे इसकी आदत लग गई तो! अपनी दिल्ली में तो मै तुरंत उन पाँच लोगों कि फेहरिश्त में शामिल हो जाऊंगा जिन्हें रोज़ कोई ना कोई गाड़ी वाला जीवन के भार से मुक्त कर देता है!

बौन्न और बौन्नों के बारे में और भी कुछ बातें, जल्द ही.

Sunday, October 3, 2010

One for the ladies!


Coaches in a mode of public transport reserved exclusively for women:a new revolution in delhi.you can see,sigh but cant enter :) hope dis makes 'em very happy!

Tuesday, July 20, 2010

Hum nahi sudhrenge...


Outside patel chowk metro station,new delhi.overluking the board is a sulabh shauchalaya,bt naa,hum nahi sudhrenge!

Sunday, June 20, 2010

Mumbai sunset


Kahin door jab din dhal jaye...

Friday, April 9, 2010